लघु-चित्रण

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मैं लौट कर आऊँगा

Published सितम्बर 11, 2019 by Voyger

“तुमसे कितनी बार कहा है कि मुझे इस बारे में कोई बात नहीं करनी है, जब एक बार बात हो चुकी है, तब तुम क्यों एक ही बात को दोहराती हो” कहते हुए राजेश जी चाय का कप पटक कर बाहर चले गए।

नीता, अपनी गरम चाय में से उठते धुएँ को देखते हुए राजेश की बातों को मन ही मन सोचते हुए यादों की गलियों में चली गई।

“क्या हुआ माँ, पापा आज फिर गुस्से में चाय छोड़ कर चले गए,” 18 वर्ष की कोमल माँ के पास प्यार से बैठते हुए बोली। “नहीं-नहीं बेटा, तुम इन बातों की ओर अपना ध्यान मन लगाओ, केवल अपने कैरियर की ओर देखो, तुम एक फैशन डिजाइनर बनना चाहती हो न, बस उसपर फोकस करो, “ बेटी के सिर को प्यार से शलताते हुए नीता, अपनी आँखों के आँसू छिपाती हुई, रसोई में चली गई। यही तो वह कोना है जो उसके बहते आंसुओं और दबी सिसकियों को अपने दामन में समेट लेता है।

कुकर पर दाल चढ़ाकर नीता को वह मनहूस फोन की घंटी याद आ गई, जिसने उसकी ही नहीं घर के हर सदस्य की दुनिया ही बदल दी थी।

“हेलो, मैं सुरेश बोल रहा हूँ, इंजिनयरिंग इंस्टीट्यूट से, देखिये आपके बेटे पुनीत की तबीयत बहुत खराब है, आप लोग जल्दी से यहाँ पहुँच जाएँ” सुनते ही नीता-राजेश बदहवास से पुनीत के इंस्टीट्यूट पहुंचे तब तक उनकी दुनिया से पुनीत बहुत दूर जा चुका था।

किसी तरह किचन का काम समेट कर नीता बाहर आकर अभी बैठी ही थी कि फोन कि घंटी ने उसका ध्यान खींच लिया।

“दीदी, क्या अब भी जीजाजी ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी है, आखिर कब तक वो तुम्हारी सेहत से खेलते रहेंगे “ फोन पर उसकी छोटी बहन सुनीता थी, “जो कुछ हुआ उससे तुम्हें भी तो दुख पहुंचा था, और अब जो कुछ जीजाजी कर रहे हैं, क्या उससे तुम्हारी सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ रहा है” किसी तरह सुनीता को शांत करके नीता पलंग पर लेटकर चलते पंखे को देख रही थी।

“देखो नीता, मैंने डॉक्टर से अपोईंटमेंट ले लिया है, हमें कल शाम को अस्पताल जाना है, तुम तैयार रहना” राजेश के फोन ने नीता को सिहरा दिया। पुनीत के जाने के बाद, राजेश को बिलकुल बदल कर रख दिया है। 55 वर्षीय राजेश, अपनी पचास वर्षीय पत्नी को आईवीएफ के जरिये फिर से गर्भधारण करवाना चाह रहे हैं। सब दोस्त, डॉक्टर यहाँ तक नीता खुद, उन्हें समझा कर हार गई, लेकिन राजेश की पुनीत को वापस दुनिया में लाने की ज़िद को नहीं तोड़ सके।

“देखिये राजेश जी, मैंने आपसे पहले भी कहा था, आपके पहले ही दो अटेम्प्ट फेल हो चुके हैं, नीता जी की उम्र अब गर्भधरण करने के लिए उपयुक्त नहीं है” डॉक्टर ने समझाते हुए कहा।

“देखिये, जब 75 साल की महिला, गर्भ धारण करके संतान पैदा कर सकती है तब नीता तो अभी पचास साल की ही है” राजेश ने कठोर आवाज में कहा तब नीता चुपचाप उस कमरे की ओर बढ़ गई जहां उसका आगे की कार्यवाही होनी थी।

“मुबारक हो आप दो बच्चों के पिता बन गए, लेकिन हमें अफसोस है हम आपकी पत्नी को नहीं बचा पाये” डॉक्टर ने सिर झुका कर कहा।

राजेश अपनी गोदी में खेलते जो नवजात शिशु को देख रहे थे, उनका पुनीत दो रूपों में वापस आ गया था, लेकिन अब उनकी जीवन साथी, उनसे बहुत दूर जा चुकी थी।

 

 

दूसरा जन्म

Published जून 2, 2016 by Voyger

“अनूप कहाँ हो तुम” सुमित ने कमरे में प्रवेश करते समय चारों ओर नज़रें घुमाते हुए ज़ोर से आवाज लगाई। “अरे कहाँ हो अनूप, जल्दी आओ, देखो मेरे हाथ में क्या है,” अपनी प्रसन्नता से छलकती आवाज में सुमित ने फिर से आवाज़ लगाई।

“माँ-पापा, आप भी आओ, देखो मेरे हाथ में क्या है” सुमित के अंग अंग से खुशी जैसे छलक़ी पड़ रही थी। सुमित की आवाज़ के जादू ने जैसे सारे घर को ही एकबारगी जगा दिया और घर का हर सदस्य अपने हाथ का काम तुरंत छोड़ कर आवाज़ की दिशा में जैसे खींचता सा चला आया।

“क्या बात है भैया” अनूप ने सबसे पहले कमरे में आते ही अपनी चिर-परिचित सकुचाहट में भरे स्वर में अपने प्रफुल्लित बड़े भैया से पूछा।

“हाँ हाँ सुमित क्या बात है जो तुम इतना खुश हो रहे हो, ज़रा हमें भी तो बताओ” शंकरदयाल जी ने अपने बड़े बेटे से पूछा।

“पापा, क्या आप जानते हैं, ये मेरे हाथ में क्या है,” सुमित ने अपने हाथ में लहराते अखबार को दिखाकर पूछा।

“तो क्या अनूप का रिज़ल्ट आ गया,” कुसुम, शंकरदयाल जी की पत्नी ने पूछा।

हाँ माँ, देखो और अपना अनूप न केवल फ़र्स्ट डिविजन में पास हुआ है बल्कि पूरे ज़िले में भी पहला नंबर लेकर आया है।” सुमित ने हुलसते हुए कहा।

“भगवान का बहुत बहुत शुक्रिया” कुसुम ने आसमान की ओर देख कर हाथ जोड़ दिये और भरे गले से बोली, “आज इसने अपने पापा का सपना पूरा कर दिया, वो होते तो भी बहुत खुश होते।” ये शब्द कहते ही कुसुम स्तब्ध रह गयी और डरी डरी नज़रों से शंकरदयाल को देखा।

रमेश की सड़क दुर्घटना में मृत्यु के पश्चात कुसुम अपने नवजात शिशु,अनूप के साथ जिंदगी बिताने को तैयार थी, लेकिन कुसुम के ससुर, प्रगतिशील व्यक्ति थे। उन्होंने अपने एक दोस्त। जिनकी एक पुत्रवधू की कैंसर के कारण मृत्यु हो गयी थी के साथ सलाह मशविरा किया। उनके दोस्त का पुत्र पत्नी से अटूट प्रेम करता था और इसी कारण वो भी अपने पाँच वर्षीय पुत्र के साथ एकाकी जीवन बिताने में संतुष्ट था। लेकिन कुसुम के ससुर और शंकरदयाल के पिता ने दोनों को समझा कर उनका विवाह करवा दिया। विविहोप्रांत शंकरदयाल और कुसुम ने एक दूसरे की संतानों को मन से अपना लिया और आज उसका परिणाम है की सुमित इस घर का बड़ा बेटा एक सफल वकील है और वो इसका श्रेय अपनी माँ यानी कुसुम को देता है और दूसरा बेटा अनूप, जो स्वभाव से ही गंभीर प्रकृति  है आज डॉक्टर बन गया है ।

तभी शंकरदयाल ने आगे बढ़कर अनूप को गले लगा लिया और भरे गले से बोले, “आज में भगवान का और अपने दोस्त रमेश का बहुत अहसानमंद हूँ, की उन दोनों की वजह से मुझे यह दिन देखने का मौका मिला। आज मेरा एक बेटा वकील बनकर समाज की सेवा कर रहा है और दूसरा बेटा डॉक्टर बन कर उसी राह पर चलने को तैयार है। मैं तुम्हारा भी बहुत आभारी हूँ, कुसुम जो तुमने मुझे मेरे और मेरे बेटे को अपना प्यार देकर न केवल हम दोनों को जीवन-दान दिया बल्कि इस मकान को भी दूसरे  जन्म का उपहार दे दिया ”।

कुसुम की आँखों में प्रेम और विश्वास के आँसू छलक आए।

 

नेहा

Published मई 30, 2016 by Voyger

 

नेहा, अपने नामानुरूप थी। बचपन से ही सबसे नेह रखा। परिवार हो या समाज, हर आयु, हर रिश्ते से सिर्फ प्यार किया और प्यार दिया, कभी किसी से बदले में प्यार मांगा नहीं। छोटे भाई, हमेशा, कुछ न कुछ मांगते रहे और बड़ी बहन नेहा, हमेशा प्यार से देती रही। जब तक स्कूल में थे, पढ़ाई खुद भी करी और भाइयों को भी करवाई और बड़े होने के बाद नौकरी लग गयी तो भाई हक़ से कुछ न कुछ मांगते रहे। आदर्शवादी नेहा, हमेशा देने में ही यकीन करती रही। माँ, सब कुछ देखती थीं, शायद मन में कभी सोचा हो लेकिन ज़बान से कभी नहीं कहा और पिता तो हमेशा ही नेहा को बेटा मानते थे। विवाह योग्य होने पर भी छोटे भाई पहले कुछ करने लायक हो जाएँ तभी इस बारे में सोचेंगे, माता-पिता ने प्यार से नेहा को समझा दिया और नेहा ने तो न कहना जाना ही नहीं। कब दोनों भाई आइ ए एस और आइ पी एस बनकर अपनी ग्रहस्थी अलग सजा बैठे, नेहा को तो पता भी नहीं लगा। अपनी अपनी ट्रेनिंग पूरी करके नौकरी और पसंद की साथी को जीवनसाथी बना दोनों भाई माता-पिता का आशीर्वाद लेने आ गए और अपने फोन नंबर दे गए। नेहा तो फिर से अपने नामानुरूप, सबको नेग और नेह ही देती रह गयी।

एक ही बरस में माता-पिता ने एक दूसरे का साथ अंतिम यात्रा तक दिया और अब नेहा को महसूस हुआ की उसने सबको दिया है और उसके हाथ तो रीते के रीते ही रह गए। ऑफिस के बॉस ने नेहा को अपने दफ्तर में ही नहीं जीवन में भी जब जगह दी तो लगा शायद अब नेहा की बारी है किसी से सच्चा स्नेह और नेह पाने की। लेकिन नेहा को तो देना है। उसका जीवन चक्र फिर उसी धुरी पर घुमने लगा जहां, शादी से पहले था। माता-पिता की जगह बूढ़े सास-ससुर, छोटे भाइयों की जगह, छोटे देवर और समय के साथ हुए अपने बच्चे। लेकिन नेहा का नेह, वो तो शायद किसी के पास नहीं है।

शायद देने के साथ लेना भी होता है, नेहा ने यह सबसे कहा होता तो आज उसके हाथ खाली ना होते।