पुरालेख

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छोटे छोटे सुख

Published नवम्बर 26, 2016 by Voyger

“बीबीजी लो मैं आ गयी, कहो क्या काम करना है,” आवाज़ सुनकर जो पीछे मुड़कर देखा तो उसे अपने सामने खड़ा पाया।

नाम तो जानती नहीं थी, हाँ कालोनी के पार्क में कुछ समय से कुछ मजदूर काम कर रहे थे। उत्सुकतावश उनके पास जाकर उनका हाल पूछने को मन हुआ तो कल सुबह की सैर के बाद एक पल को उन लोगों के पास ठहर गयी। पता चला, दो परिवार हैं जिनमें आदमी-औरत और हर आयु के बच्चे मिलकर पंद्रह-सोलह लोग हैं। एक साफ-सुथरी मज़दूरनी को देखकर मन में न जाने क्या हुआ तो उससे कह बैठी, “में यहीं सामने वाले घर में रहती हूँ, कभी इस काम के अलावा और कोई घर का काम करने का इरादा हो तो आ जाना”।

आज वही मज़दूरनी अपने छोटे से बेटे को लेकर मेरे घर के दरवाजे पर खड़ी थी। साथ में एक अपने ही जैसा साफ बर्तन भी लायी थी।

“अरे बेटे के साथ कैसे काम करेगी और ये बर्तन क्यूँ लायी है”। मेरे कौतूहल दिमाग ने फिर से एक सवाल को जन्म दिया “ और हाँ तेरा नाम क्या है” फिर एक सवाल पूछ ही लिया।

“श्यामा नाम है मेरा, और मेरा नंदू बहुत सीधा बालक है बीबीजी, बस एक कोने में बैठा रहेगा। सोचा एक दिन यह भी साफ ज़मीन पर बैठ लेगा। और बर्तन आपके घर से साफ पानी ले जाने के लिए लायी हूँ। रोज तो पार्क के नल से ही खाना बना लेते है। अगर आपको अच्छा नहीं लगा तो कोई बात नहीं” एक सांस में मेरे सारे सवालों के संतोषजनक उत्तर देकर श्यामा वहीं ज़मीन पर बैठ गयी।

“हाँ-हाँ क्यूँ नहीं, अपने नंदू को यहाँ हवा में बैठा दे और जाते समय जितना मन करे पानी ले जाना”। ये कहकर उसे अपने घर के बगीचे में लगी घास को साफ करने के लिए कह दिया और सोचने लगी। कितनी छोटी छोटी बातों में ये लोग सुख ढूंढ लेते हैं। एक माँ अपने रोज़ धूल भरी ज़मीन पर बैठने वाले बेटे को एक दिन साफ ज़मीन देकर ही खुश हो रही है। एक ग्रहणी अपने परिवार के लिए, रोज मिलने वाले पानी की जगह थोड़े साफ पानी से खाना बनाकर ही आज खुश होना चाहती है।

मुझे इन लोगों के इन छोटे छोटे सुखों में बाधा बनने के कोई अधिकार नहीं है।

 

लुका छिपी

Published नवम्बर 21, 2016 by Voyger

आज रवि को देखा तो लगा शायद वक़्त ठहर सा गया। आज भी वो दोनों एक दूसरे को छिप छिप कर ही देख रहे थे। शलिनी ने तो रवि को लाइब्ररी के गलियारे में दूर से देखते ही पहचान लिया था।

वही ऊंची कद काठी, गोरा शफ़्फाक रंग, बालों में सफेदी ज़रूर आ गयी थी, आगे के बाल भी कम हो गए थे लेकिन माथे पर झूलती लट आज भी वही अपनी जगह मौजूद थी।

“कब आए पेरिस से” येही मैसेज तो छोड़ कर गया था रवि। न उसके पहले कुछ कहा और न उसके बाद।

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शलिनी के लिए तो वक़्त रुक गया था। समाज में एक कुशल आईएस के रूप में अपने को स्थापित करने के बाद शादी के सवाल को अपनी मुस्कुराहट से टाल देती थी।

“तुम्हारा परिवार कहाँ है” आदतन रवि ने सवाल के जवाब में अपना सवाल रख दिया।

“तुम शायद भूल गए, तुम्हारे साथ परिवार बसाने की बात सोची थी, जब तुम ही नहीं थे तो………!”

रवि के समझ नहीं आया, वो शलिनी को कैसे अपनी सच्चाई से अवगत कराये।

वो कैसे भूल सकता है जब एक दुर्घटना के बाद डॉक्टर ने उसके परिवार बनाने की क्षमता पर सवाल खड़े कर दिये थे। तब शालिनी की जिंदगी बर्बाद न हो यह सोचकर उसको एक झूता मैसेज कर दिया। लेकिन आज अपने इंतज़ार में खड़ी शालिनी को देखकर उसके प्यार के आगे वो झुक गया। उस दिन की तरह आज भी सच्चाई बताने की हिम्मत रवि में नहीं थी। आत्मविश्वास से भरी शालिनी की मुस्कुराहट ने रवि को हौसला दिया और डरते हुए अपने घर आने का निमंत्रण भी।

शालिनी, रवि की हिचकिचाहट देख कर खिलखिला कर हंस दी और शर्माते, सकुचाते हुए आने की हामी दे दी।

रवि ने गहरी सांस भर के सोचा आज यह लुका छिपी का खेल बंद कर देगा और अपनी सारी हकीकत अपने प्यार को बता देगा।

शालिनी भी येही सोच रही थी, की आज वो रवि को उसकी गलतफहमी से निकाल देगी, की परिवार सिर्फ अपनी संतान से ही नहीं होता, अगर यह बात रवि के दोस्त की जगह उसने खुद ही बताई होती तो आज वो दोनों एक दूसरे के अभिन्न अंग होते।

शायद किस्मत में यह खेल खेलना लिखा ही था। आज वो रवि से मिलकर यह लुका छिपी का खेल खत्म कर देगी।