मन के मोती

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मैं लौट कर आऊँगा

Published सितम्बर 11, 2019 by Voyger

“तुमसे कितनी बार कहा है कि मुझे इस बारे में कोई बात नहीं करनी है, जब एक बार बात हो चुकी है, तब तुम क्यों एक ही बात को दोहराती हो” कहते हुए राजेश जी चाय का कप पटक कर बाहर चले गए।

नीता, अपनी गरम चाय में से उठते धुएँ को देखते हुए राजेश की बातों को मन ही मन सोचते हुए यादों की गलियों में चली गई।

“क्या हुआ माँ, पापा आज फिर गुस्से में चाय छोड़ कर चले गए,” 18 वर्ष की कोमल माँ के पास प्यार से बैठते हुए बोली। “नहीं-नहीं बेटा, तुम इन बातों की ओर अपना ध्यान मन लगाओ, केवल अपने कैरियर की ओर देखो, तुम एक फैशन डिजाइनर बनना चाहती हो न, बस उसपर फोकस करो, “ बेटी के सिर को प्यार से शलताते हुए नीता, अपनी आँखों के आँसू छिपाती हुई, रसोई में चली गई। यही तो वह कोना है जो उसके बहते आंसुओं और दबी सिसकियों को अपने दामन में समेट लेता है।

कुकर पर दाल चढ़ाकर नीता को वह मनहूस फोन की घंटी याद आ गई, जिसने उसकी ही नहीं घर के हर सदस्य की दुनिया ही बदल दी थी।

“हेलो, मैं सुरेश बोल रहा हूँ, इंजिनयरिंग इंस्टीट्यूट से, देखिये आपके बेटे पुनीत की तबीयत बहुत खराब है, आप लोग जल्दी से यहाँ पहुँच जाएँ” सुनते ही नीता-राजेश बदहवास से पुनीत के इंस्टीट्यूट पहुंचे तब तक उनकी दुनिया से पुनीत बहुत दूर जा चुका था।

किसी तरह किचन का काम समेट कर नीता बाहर आकर अभी बैठी ही थी कि फोन कि घंटी ने उसका ध्यान खींच लिया।

“दीदी, क्या अब भी जीजाजी ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी है, आखिर कब तक वो तुम्हारी सेहत से खेलते रहेंगे “ फोन पर उसकी छोटी बहन सुनीता थी, “जो कुछ हुआ उससे तुम्हें भी तो दुख पहुंचा था, और अब जो कुछ जीजाजी कर रहे हैं, क्या उससे तुम्हारी सेहत पर बुरा असर नहीं पड़ रहा है” किसी तरह सुनीता को शांत करके नीता पलंग पर लेटकर चलते पंखे को देख रही थी।

“देखो नीता, मैंने डॉक्टर से अपोईंटमेंट ले लिया है, हमें कल शाम को अस्पताल जाना है, तुम तैयार रहना” राजेश के फोन ने नीता को सिहरा दिया। पुनीत के जाने के बाद, राजेश को बिलकुल बदल कर रख दिया है। 55 वर्षीय राजेश, अपनी पचास वर्षीय पत्नी को आईवीएफ के जरिये फिर से गर्भधारण करवाना चाह रहे हैं। सब दोस्त, डॉक्टर यहाँ तक नीता खुद, उन्हें समझा कर हार गई, लेकिन राजेश की पुनीत को वापस दुनिया में लाने की ज़िद को नहीं तोड़ सके।

“देखिये राजेश जी, मैंने आपसे पहले भी कहा था, आपके पहले ही दो अटेम्प्ट फेल हो चुके हैं, नीता जी की उम्र अब गर्भधरण करने के लिए उपयुक्त नहीं है” डॉक्टर ने समझाते हुए कहा।

“देखिये, जब 75 साल की महिला, गर्भ धारण करके संतान पैदा कर सकती है तब नीता तो अभी पचास साल की ही है” राजेश ने कठोर आवाज में कहा तब नीता चुपचाप उस कमरे की ओर बढ़ गई जहां उसका आगे की कार्यवाही होनी थी।

“मुबारक हो आप दो बच्चों के पिता बन गए, लेकिन हमें अफसोस है हम आपकी पत्नी को नहीं बचा पाये” डॉक्टर ने सिर झुका कर कहा।

राजेश अपनी गोदी में खेलते जो नवजात शिशु को देख रहे थे, उनका पुनीत दो रूपों में वापस आ गया था, लेकिन अब उनकी जीवन साथी, उनसे बहुत दूर जा चुकी थी।

 

 

स्वावलंबी

Published जुलाई 29, 2018 by Voyger

स्वावलंबी

“आंटी, क्या आप आज थोड़ी देर के लिए मम्मी के पास बैठ जाएंगी, मुझे ऑफिस ज़रूरी काम से जाना है, नहीं तो मैं छुट्टी ही ले लेती ” इतना कहकर मानसी, दौड़ती हुई बाहर चली गई।

“कौन आया था”। चाय का घूंट भरते हुए पतिदेव ने अखबार में नज़रें गढ़ाए हुए ही पूछ लिया।

“मानसी थी, उसकी मम्मी की तबीयत खराब है तो दिन में जाकर देख आने के लिए बोल गई है। ठीक है चली जाऊँगी” कहते हुए मेरा शरीर तो काम में लग गया लेकिन मन कहीं मानसी में ही अटक गया।

पड़ोस में रहने वाली मानसी मेरे सोचने के लिए जाने कितने सवाल छोड़ गई। जन्म से एक शारीरिक कमी के कारण उसे दिव्याङ्ग श्रेणी में रखा जा सकता है। पढ़ने में रुचि रखने वाली मानसी ने पी एच डी तक की डिग्री के साथ और भी कई कोर्स कर रखे हैं। लेकिन उसके अंदर अपने ज्ञान को लेकर बिलकुल भी घमंड नहीं है।

दो शादी-शुदा भाइयों की बड़ी बहन, सरकारी नौकरी में लगी हुई, घर के हर काम के लिए छुट्टी लेती रहती है। क्या सिर्फ इसलिए की उसकी शादी नहीं हुई। क्या सिर्फ इसलिए की उसकी जन्मजात शारीरिक कमी को उसने अपनी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत बनाया और कभी किसी काम से मुंह नहीं मोड़ा। क्या सिर्फ इसीलिए शादी के बाज़ार में वो लिपि पुती गुड़िया नहीं बन सकी जो मैराथन रेस में हिस्सा लेने लायक समझी जाती है। सोचते हुए मेरा सिर दुखने लगा तो चाय का कप लेकर बैठ गई।

“लेकिन क्या इस समाज में कोई ऐसा नहीं है जो आगे बढ़कर मानसी को सच्चे मन से अपना ले” मेरे व्याकुल मन को चैन नहीं था।

पतिदेव जो यह सब देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे, चुपचाप आकर पास बैठ गए। उनका पास बैठना ही चोट पर मरहम की तरह का काम करता है। मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोले, “तुम क्यूँ मानसी को लेकर इतनी परेशान होती हो, समझदार लड़की है, खुद को सम्हालना जानती है। उसे सबके दुख-दर्द में और हंसी खुशी में खड़ा होने में सच्चा सुख मिलता है। उसने अपना सुख इसी तरह ढूंढ लिया है। लेकिन भगवान ने उसके लिए भी कोई न कोई तो बनाया ही होगा। चिंता न करो, सब ठीक होगा। ”

“लेकिन क्या एक नवयुवती अगर दूसरों के दुख और सुख में अपना सुख ढूंढती है, तो क्या इसका अर्थ है की उसकी अपनी निजी कोई भावनाएँ नहीं हैं?” मैंने बैचन होते हुए कहा, “मैंने देखा है वो किस तरह हँसते हुए अपने छोटे भाइयों की गृहस्थी के सारे काम करती है, कैसे उनके बच्चों को अपने कलेजे से लगा कर रखती है। लेकिन क्या किसी ने उसकी हँसती आँखों की खामोशी को पढ़ने की कोशिश करी है ….. किसी भी दिव्याङ्ग को सामान्य मान लेना एक अलग बात है, लेकिन उसी तकलीफ में उसका निःस्वार्थ भाव से साथ देना एक अलग बात है। यह सही है की उसकी दोनों भावज उसे मान-सम्मान देतीं हैं। लेकिन जो प्यार और साथ एक जीवन साथी से मिल सकता है उस कमी को तो कोई पूरा नहीं कर सकता हैं न ”

मेरी बैचेनी को कम करने के लिए उन्होनें समझाने की कोशिश करी,“देखो, समाज को दिखाने के लिए और दिव्याङ्ग व्यक्ति को मिलने वाली सुविधाओं के आकर्षण में बहुत से सामान्य युवक दिव्याङ्ग लड़कियों को अपना जीवन साथी तो बना लेते हैं। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर आने के बाद मोह भंग हो जाता है। ऐसी स्थिति में लड़की या तो घुटन भरा समझौतों से भरा जीवन जीती है या फिर अपना जीवन ही समाप्त कर देती है। इसलिए अगर मानसी आजीवन अविवाहित भी रहती है तो कम से कम उसे अपने जीवन पर अधिकार तो है। किसी को उसके ऊपर तरस खाने की जरूरत नहीं है। क्या तुम भूल गईं की आरती के साथ क्या हुआ।“

आरती इनके एक दोस्त की बेटी है जो मानसी की ही भांति पढ़ी-लिखी और ऊंचे पद पर सरकारी नौकरी कर रही थी। माता-पिता ने देखभाल के एक सामान्य युवक से उसकी शादी कर ली। आरती के पति ने शादी के कुछ ही समय बाद पता चला की आरती की सास एक मानसिक रोगी थीं और उसका पति काम के नाम पर कोई छोटा-मोटा व्यापार करता था। आरती को बहला कर उसकी नौकरी छुड़वा दी और उसकी सारी जमा व्यापार के नाम पर लगा दी। आरती एडजस्ट करने के नाम पर सब कुछ सहती गई और कुछ ही समय में एक पढ़ी-लिखी सरकारी ऑफिसर मानसिक मरीज हो गई है।

पतिदेव की बात सुनकर सोचा , सच ही तो है।  दिव्याङ्ग लोग नहीं बल्कि उनकी सोच होती है। मानसी अपने जीवन को स्वाभिमान के साथ जी रही है, क्या यह कम बात है की वह अपनी किसी भी बात के लिए किसी पर निर्भर नहीं है। वो जैसी है, खुश है और अच्छी है। भगवान उसे आगे बढ्ने की हिम्मत दे। यह सोचते हुए मेरे कदम रसोई की ओर चले गए। जल्दी से काम खत्म करके मानसी के घर भी तो जाना है।

 

विस्फोट

Published मई 22, 2018 by Voyger

“आज तो मैं अपने दिल की बात कह की ही रहूँगी” कला यह सोचते हुए, लंबे कदमों से बस से उतर कर कॉलेज के गेट के अंदर भागती हुई सी चली गई। यह पता लगाना मुश्किल थे, की माथे पर आए पसीने, अब तक करी हुई भाग दौड़ का परिणाम थे या फिर उस घबराहट के कारण थे, जो उसके दिल में हो रही थी।

girl 2कालेज कैंपस के गलियारों से गुजरते हुए वो  अपनी निर्धारित मंज़िल यानि कैफीटेरिया की ओर बढ़ गई। वहीं तो उसका बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था।

“लो, कला भी आ गई”, सबकी गर्दनें एक साथ उस दिशा में घूम गईं जहां की ओर कहने वाले ने इशारा किया था। कला हांफती और अपना दुपट्टा सम्हालते हुए अपने साथियों के ग्रुप में शामिल हो गई।

“कला, देखो….” उसके मुंह पर हाथ रखते हुए कला बोली, “देखो तुम, पहले मेरी बात सुनो, आज तो तुमको मेरी बात सुननी ही पड़ेगी। आज मैं और कोई बात नहीं सुनूगी“ कला ने अपनी उखड़ी हुई सांस को ठीक करते हुए कहा।

“मैंने सोच लिया है, मैं पुलिस में भर्ती होने का एग्जाम ज़रूर दूँगी, उसके लिए मुझे किसी से मदद लेने की ज़रूरत नहीं है। जो मैंने अब तक शौकिया बच्चों की कहानियाँ और कवितायें लिखी हैं उन्हें एक बच्चों की नयी शुरू होने वाली पत्रिका खरीदना चाहती है। वहाँ से इतने पैसे तो मिल ही जाएँगे की मैं अपने लिए अच्छी किताबें खरीद सकूँ। girl 4इसके अलावा हमारे पड़ोस में रहने वाले शर्मा अंकल से बात कर ली है, मैं उनके प्रोजेक्ट पर बनने वाली सारी पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन बनाऊँगी और वो उसके मुझे पैसे दे देंगे। उनसे मेरी पार्ट टाइम नौकरी वाली बात भी पूरी हो जाएगी और घर का खर्च चलाने में मुश्किल नहीं होगी। अब रही पढ़ाई, तो उसके लिए सुबह-शाम का एक घंटा और सभी ज़रूरी क्लास, बस हो गई पढ़ाई” । एक सांस में यह सब बोलकर कला मानों चुक गई और वहीं थक कर बैठ गई।

सारा ग्रुप मुंह बाए उसकी ओर देखता रह गया। हमेशा चुपचाप रह कर गर्दन झुका कर चलने वाली लड़की पुलिस का एग्जाम देगी। न केवल इतना बल्कि बिना घर से निकले अपनी पढ़ाई और घर का खर्च चलाने का इंतेजाम भी कर लिया। किसी का अहसान नहीं और किसी की मदद की गुंजाइश नहीं।

girl 3कला की इस बात से सबके मन में उठते हुए उन सभी सवालों के जवाब मिल गये, जो पिछले सप्ताह उसकी पिता की अचानक मृत्यु के खड़े हो गये थे। ब्रेन हेमरेज होने के कारण पिता को अच्छे अस्पताल में भर्ती करवाया और उसमें उस परिवार की सारी जमा खर्च हो गई। कला के मित्र इस स्थिति से बने हालातों में मदद करने की योजना बना ही रहे थे, की कला ने अपने पत्ते खोल दिये।

मुस्कुराती कला के इस विस्फोट ने सबके चेहरे पर हैरानी मिश्रित मुस्कान ला दी थी।

सीधा रास्ता

Published अप्रैल 9, 2018 by Voyger

“अरे तुमने अपनी कहानी में फिर वो ही घिसा-पिटा रास्ता दिखा दिया” पतिदेव ने मेरी ताज़ी लिखी हुई कहानी को पढ़ते हुए कहा। मेरी सवालिया निगाहों का अर्थ समझते हुए, पतिदेव बोले। “हर बार तुम्हारी कथा की नारी पात्र कमजोर, अनपढ़ और मजबूरी में या तो शरीर बेचने को मजबूर हो जाती है या फिर उसका बलात्कार हो जाता है”। नासमझ बच्चे की तरह सवाल पूछते पतिदेव को जवाब देना जरूरी था। तो अपना समस्त साहित्य ज्ञान को याद करते हुए कहा “आप जानते हैं न की साहित्य समाज का दर्पण होता है। जो आसपास घट रहा है, लेखक, चित्रकार, कवि, फ़िल्मकार, मूर्तिकार वही तो अपनी कला में दर्शाएगा”। जवाब बिलकुल सटीक था। इसलिए विजयी होने की भावना चेहरे पर मुस्कुराहट बन कर सज गयी।

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“मेरी साहित्यकार श्रीमती आपने बिलकुल सही कहा” पतिदेव के समर्थन से विजय पताका सुदृढ़ हो गयी। “लेकिन” इतना सुनते ही, अपनी विजय स्त्मभ में सेंध लगती प्रतीत हुई। पतिदेव ने अपना पक्ष रखा “घर में चाहे शादी-ब्याह हो या किसी बच्चे का जन्म, किन्नर के गीत-संगीत के बिना अधूरा रहता है। यह समाज की बरसों पुरानी रीत चली आ रही है। लेकिन इसी रीत की लकीर को पश्चिम बंगाल की 30 वर्षीय किन्नर जोईता मण्डल ने पार किया और एक जज बन गईं। क्या तुम्हारे साहित्य ने उनको अपने पन्नों में स्थान दिया। रेल हादसे में अपने दोनों पैर गँवाने वाली अरुणिमा सिन्हा ने हर प्रकार की बाधा का सामना करते हुए माऊँट एवरेस्ट को लांघ लिया। क्या तुम्हारा इतिहास इन्हें भूल गया। सिरमोर जैसी छोटी जगह का शायद तुमने नाम भी नहीं सुना होगा। वहाँ की नारियों ने पौराणिक काल से लेकर आधुनिक काल तक न जाने कितने साहसिक काम किए हैं, आपका इतिहास क्यूँ मौन है”… पतिदेव के साहित्यक ज्ञान के आगे मेरे शब्द मौन हो गए।

अपनी रौ में बहते हुए स्वामी ने आगे कहा,” आजादी के बाद आज देश के लगभग हर कोने में शिक्षा का इतना प्रसार तो हो चुका है की केरल जैसा राज्य 100 प्रतिशत साक्षर राज्य का दर्जा प्राप्त कर चुका है। फिर क्यूँ आपकी कहानियों में एक महिला मुश्किल के समय में भीख मांगने या अपना शरीर बेचने को मजबूर होती है? आप अपनी पात्रा को किसी स्कूल या दफ्तर में चपरासी भी लगवा सकती हैं। आचार-मुरब्बे बेचकर न जाने कितनी महिलाएं अपनी आजीविका चला रहीं हैं। इसमें न तो शिक्षा की जरूरत है और न ही धन की। फिर क्यूँ आपकी मजबूर नारी पात्र हमेशा घर के बर्तन माँजने वाली बाई ही बनती है। अहमदाबाद का लिज्जत पापड़ ऐसी ही स्वावलंबी महिलाओं की पहचान है। अखबार से लिफाफे बना कर बेचना तो न जाने कब से महिलाओं की आय का साधन रहा है। फिर आपके साहित्य का दर्पण यह चित्र क्यूँ नहीं दिखाता है”।

पतिदेव के हाथ में पानी का गिलास देते हुए मैंने अपना पक्ष रखने का प्रयत्न किया, “ जब अन्न का एक दाना भी घर में न हो, छोटे बच्चे घर पर बिलखते हों, तो कोई महिला पापड़ कैसे बना सकती है। आचार का नींबू कहाँ से लाएगी। अखबार तो शायद वो जानती भी न होंगी” ।

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गले को तर करके पतिदेव ने फिर से अपना तीर साधा “ अगर समय रहते परेशानी के समय के अनुसार काम किया जाये तो घर में फाके की नौबत नहीं आएगी। सड़क किनारे बनी हुई झुग्गी में क्या तुमने टिमटिमाता हुआ बल्ब और टीवी चलता हुआ नहीं देखा”।

मैं समझ गई, पतिदेव क्या कहना चाहते हैं। नतमस्तक होते हुए हाथ जोड़े और हथियार डालते हुए कहा , “ आज की नारी अब अबला नहीं सबला है, चाहे तो वह बंजर धरती में भी फूल खिलाने की क्षमता रखती है।“

पतिदेव ने हँसते हुए कहा “श्रीमती जी, आपके दास को चाय मिलेगी” नासमझ बच्चा अब प्रेमी के रूप में निहार रहा था, जिसे अनदेखा करना मुश्किल ही नहीं असंभव था।

मैं चाय बनाने को रसोई में चल दी और सोच रही थी, क्या वास्तव में मेरा साहित्य समाज का दर्पण है?

अनचाही पीड़ा

Published जनवरी 16, 2018 by Voyger

“अरे श्यामा, यह क्या, तेरी शक्ल क्यूँ उतरी हुई है, खुशी की जगह यह मायूसी और आँखों में गुस्से और अपमान के बिन्दु चमक रहे हैं”, मैंने अपनी बचपन की सखी को दरवाजे से अंदर आते हुए देखा और पूछा।

1756_dd60946ca339cc6c8917552ca62c33f0“लेकिन श्यामा, तुम तो अपनी पेंटिंगस को लेकर एक मशहूर नुमाइश में गईं थीं न, क्या हुआ वहाँ, तुम्हारे काम को तो सब बहुत पसंद करते हैं” मैं उत्सुकता से श्यामा से सवाल पर सवाल किए जा रही थी, और वो गुमसुम बिना कुछ सुने और बोले, आँखों में आँसू लिए कहीं खोयी हुई बैठी थी।

images (8)लगभग एक घंटा बीतने के बाद जब श्यामा मन से थोड़ी शांत हुई तो पानी का एक घूंट भरने के बाद एक जलता हुआ सवाल मेरी ओर उछाला,”यह अनचाहा बोझ और दंश कब तक सहना होगा हमें, क्या किसी विशेष जाती या समुदाय में जन्म लेना हमारे अपने हाथ में है? क्या मैंने कभी अपनी विशेष जाती का बैसाखी के रूप में इस्तेमाल किया है? अपने पिता के चरण चिन्हों पर चलते हुए,हमेशा अपने बूते और योग्यता से शिक्षा और सरकारी नौकरी हासिल करी, अपने शौक को आगे बढ़ाते हुए समाज के गणमान्य लोगों में अपना नाम बनाया। बचपन से लेकर आज तक अपने जाती प्रमाण पत्र का इस्तेमाल नहीं किया। फिर क्यूँ यह समाज और इसका बुद्धिजीवी समुदाय मुझे बार-बार नीचा दिखाने पर तुला हुआ है”, एक ही सांस में अपनी पीड़ा को अनेक सवालों के रूप में श्यामा मेरी ओर देकर फफक पड़ी।

मैं निःशब्द उसके दुख की थाह पाने के प्रयास में सोच रही थी, क्या राम और कृष्ण ने केवल केवट और शबरी को उनकी जाती के कारण प्रेम दिया था?

मेरी खुशी

Published दिसम्बर 14, 2017 by Voyger

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“हाँ हाँ, कितनी बार कहा है मैं वोही करूंगा जो मुझे अच्छा लगेगा और जिससे मुझे खुशी मिलेगी,” अभिषेक कहते हुए हाँफने लगा, “आखिर मेरी भी कोई मर्ज़ी है की नहीं, मुझे सिखाने और पढ़ाने की कोशिश मत करो” कहते हुए वो कमरे से निकल गया।

“अरे आशा, अभिषेक इतने गुस्से में क्यूँ बाहर गया है” उसकी हमउम्र सुनीता ने दरवाजा खुला देखकर घर में आते हुए उससे पूछा।download (5)

अभिलाषा आँसू भरी आँखों से बोली ‘भाभी, सिर्फ इतना  ,की अपने दिमाग के स्ट्रेस को कम करने के लिए अपनी जिंदगी को सरल बनाने का करो, रोज पेट खराब, सिर में दर्द और शरीर में कहीं न कहीं दर्द को लेकर अभिषेक हमेशा परेशान रहते हैं । सभी डॉक्टर यही कहते हैं की इन्हें कोई शारीरिक बीमारी नहीं है।’

“तो तुम उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो…..,” सुनीता ने कुछ सोचते हुए कहा,।

“दीदी ,यही तो हुआ है अभिषेक के साथ सारी जिंदगी। कभी न किसी की बात सुनी और न मानी। हर रिश्तेदार ने अपनी इज्जत बचाते हुए, इनसे किनारा कर लिया। अब मैं भी अगर यही करूँ, तो फिर बाकी लोगों में और मुझमे क्या अंतर होगा।“  अभिलाषा ठंडी सांस भरते हुए बोली, “अभिषेक की अभी की बात सुनकर कोई भी यह सोच सकता है की इस युवक ने सारी जिंदगी एक बोझ के तले रह कर बिताई है।“

सुनीता ने कुछ सोचते हुए कहा “हाँ हमेशा यही कहते हैं की उनको सारी जिंदगी सबने अपनी उँगलियों पर नचाया है”।

images 24“लेकिन भाभी,”अभिलाषा ने परेशान होते हुए कहा,”जबकि सच्चाई तो यह है की इनहोनें तब तक किसी की बात नहीं सुनी जब तक खुद न समझ आ जाए, और इसके लिए यह हमेशा सबसे बहस करते रहते हैं।“

“इसका मतलब अभिषेक किसी की बात को ऐसे ही मानने में अपना अपमान समझता है” सुनीता ने हैरान होते हुए कहा…

अभिलाषा तो स्वयं इस सवाल का जवाब ढूंढ रही है…..

 

 

शतरंज का मोहरा

Published दिसम्बर 12, 2017 by Voyger

157197058“कितना समझाया इसे की अपनी जिंदगी में कुछ बनो, अपने भाइयों को देखो, सब अच्छे से सेटल हो गए हैं, तुम क्यूँ नहीं कुछ करते” सरिता देवी झुँझलाते हुए अपने चालीस वर्ष के मँझले बेटे रतन से कह रहीं थीं।

“इसके दोनों भाइयों को देखो,”उन्होनें मुझसे कहा ” बड़ा हैदराबाद में कितनी अच्छी सेलरी ले रहा है और इससे छोटा वो तो कितना बड़ा घर है , एक बस यही निखट्टू है,जो कुछ करके राजी नहीं है”।

“तो फिर वहीं क्यूँ नहीं चली जाती हो माँ, तुम्हारा इलाज भी अच्छा हो जाएगा ” रतन ने मुसकुराते हुए माँ से कहा।

“अरे कैसे चली जाऊँ, बड़े की तो बीबी बीमार रहती है, बेचारा वो उसको देखेगा या मेरे इलाज के लिए भाग दौड़ करेगा। और छोटा, वो तो बेचारा आर्मी में है, उसके पास न तो टाइम है और न कोई सुविधा है। ” सरिता देवी ने बहुत बेचारगी से कहा।

175598525सरिता आंटी का हाल पूछने आई थी और अब मेरे जाने का समय हो गया था, इसलिए मैं उनसे इजाजत लेकर घर आ गई।

माँ से उनके बारे में पूछने पर वो बोलीं “सरिता देवी पागलपन तक की सीमा तक अहंकारी और क्रोधी स्वभाव की महिला हैं और वो वो अच्छी तरह से जानतीं हैं की उनके वो बेटे जो अच्छे वेतन पर सुख सुविधा में रह रहे हैं, उनके स्वभाव को अच्छी पहचानने के कारण उनके किसी भी गलत व्यवहार से प्रभावित नहीं होंगे। यह तो केवल रतन ही है जो उनके स्वभाव को जानते हुए भी उनकी देखभाल कर रहा है”।

‘तब तो दोनों भाई, रतन का साथ देते होंगे’ मैंने अचरज में माँ से पूछा।

‘नहीं,सरिता देवी ने रतन और दोनों भाइयों के बीच की खाई को इतना बड़ा कर दिया है की कोई किसी को पूछता भी नहीं है।“ माँ ने बुझे मन से कहा

तो इसका मतलब….रतन, सरिता देवी के…..

हाथ का मोहरा है….माँ ने मेरे वाक्य को पूरा किया

आज का श्रवण कुमार या शतरंज का मोहरा …क्या कहूँ रतन को….मैं इसी दुविधा में थी….

 

 

 

 

 

साथ

Published नवम्बर 16, 2017 by Voyger

“तुम अगर मेरा साथ देना चाहती हो तो तुम्हें यह काम करना ही होगा ” सुशांत ने गले की आखरी सीमा तक आवाज को ऊंचा करते हुए सुमन से कहा। सुमन पिछले सात सालों से साथ देने का अर्थ समझने की कोशिश कर रही थी।

सात वर्ष पूर्व, सुशांत ने भावुक होते हुए सुमन का हाथ पकड़ कर कहा था, “सुमन, मैं दुनिया में बहुत अकेला हूँ, घर में, समाज में किसी ने मेरा साथ नहीं दिया, इसीलिए मैं आज तक कुछ कर नहीं पाया हूँ, क्या तुम मेरा साथ दोगी”। सुमन जो उस समय एक सरकारी दफ्तर में ऊंचे पद पर और अच्छे वेतन पर काम कर रही थी, एक मित्र ने सुशांत का परिचय करवाया और सुमन उसके व्यवहार से प्रभवित हो कर उसे मन ही मन अपना बना बैठी थी। सुशांत के इस वाक्य ने तो सुमन के मुंह से खामोश हाँ निकाल ही दी। घर वालों की मर्जी के खिलाफ, पीएचडी पढ़ी सुमन ने एक साधारण और बेरोजगार सुशांत से विवाह कर दिया। क्यूंकी सुमन, सुशांत का साथ देना चाहती थी। विवाह होते ही ससुराल के रात-दिन के जले-कटे ताने और अत्याचार बराबर व्यवहार सिर्फ इसलिए सहा, क्यूंकी उसने सुशांत का साथ देने का वादा किया था।

“मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत अपने बिजनेस के लिए है, तुम नौकरी छोड़ दो ”…. सुमन के लाख समझने पर भी सुशांत ने फिर उसका साथ मांगा जो सुमन ने दिया।

बिजनेस के नाम पर सारा पैसा गंवाने के बाद सुशांत घर बैठ गया। हर समय चिड़चिड़ा व्यवहार और गुस्सा, सुशांत की दिनचर्या थी।

सुमन ने फिर से अपना साहस जुटा कर नौकरी करने की कोशिश करी तो सुशांत का क्रोध सीमा लांघ गया। सुमन ने अपना रास्ता बदला और घर में ही बैठकर अपने लिखने के शौक को व्यवसाय बनाने की कोशिश करी। जल्द ही सुमन सफल लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो गयी। अच्छे पैसे भी मिलने लगे। सुशांत फिर सामने खड़ा था। सुमन के समय को अपने नाम करने के लिए। सुमन ने अपने काम का हवाला दिया तो फिर से सुशांत ने साथ देने का वादा याद दिलाया।

सुमन अब साथ देने की परिभाषा ढूँढने की कोशिश कर रही थी।

मुझे लगा…सुमन को घर छोड़कर जाने की सलाह देना बहुत आसान है। लेकिन घर में रहकर अपने अस्मिता को बनाए रखकर सुशांत का साथ देना उसके लिए संभव है , अब यही सवाल मेरे मन में है…..

छोटे छोटे सुख

Published नवम्बर 26, 2016 by Voyger

“बीबीजी लो मैं आ गयी, कहो क्या काम करना है,” आवाज़ सुनकर जो पीछे मुड़कर देखा तो उसे अपने सामने खड़ा पाया।

नाम तो जानती नहीं थी, हाँ कालोनी के पार्क में कुछ समय से कुछ मजदूर काम कर रहे थे। उत्सुकतावश उनके पास जाकर उनका हाल पूछने को मन हुआ तो कल सुबह की सैर के बाद एक पल को उन लोगों के पास ठहर गयी। पता चला, दो परिवार हैं जिनमें आदमी-औरत और हर आयु के बच्चे मिलकर पंद्रह-सोलह लोग हैं। एक साफ-सुथरी मज़दूरनी को देखकर मन में न जाने क्या हुआ तो उससे कह बैठी, “में यहीं सामने वाले घर में रहती हूँ, कभी इस काम के अलावा और कोई घर का काम करने का इरादा हो तो आ जाना”।

आज वही मज़दूरनी अपने छोटे से बेटे को लेकर मेरे घर के दरवाजे पर खड़ी थी। साथ में एक अपने ही जैसा साफ बर्तन भी लायी थी।

“अरे बेटे के साथ कैसे काम करेगी और ये बर्तन क्यूँ लायी है”। मेरे कौतूहल दिमाग ने फिर से एक सवाल को जन्म दिया “ और हाँ तेरा नाम क्या है” फिर एक सवाल पूछ ही लिया।

“श्यामा नाम है मेरा, और मेरा नंदू बहुत सीधा बालक है बीबीजी, बस एक कोने में बैठा रहेगा। सोचा एक दिन यह भी साफ ज़मीन पर बैठ लेगा। और बर्तन आपके घर से साफ पानी ले जाने के लिए लायी हूँ। रोज तो पार्क के नल से ही खाना बना लेते है। अगर आपको अच्छा नहीं लगा तो कोई बात नहीं” एक सांस में मेरे सारे सवालों के संतोषजनक उत्तर देकर श्यामा वहीं ज़मीन पर बैठ गयी।

“हाँ-हाँ क्यूँ नहीं, अपने नंदू को यहाँ हवा में बैठा दे और जाते समय जितना मन करे पानी ले जाना”। ये कहकर उसे अपने घर के बगीचे में लगी घास को साफ करने के लिए कह दिया और सोचने लगी। कितनी छोटी छोटी बातों में ये लोग सुख ढूंढ लेते हैं। एक माँ अपने रोज़ धूल भरी ज़मीन पर बैठने वाले बेटे को एक दिन साफ ज़मीन देकर ही खुश हो रही है। एक ग्रहणी अपने परिवार के लिए, रोज मिलने वाले पानी की जगह थोड़े साफ पानी से खाना बनाकर ही आज खुश होना चाहती है।

मुझे इन लोगों के इन छोटे छोटे सुखों में बाधा बनने के कोई अधिकार नहीं है।

 

लुका छिपी

Published नवम्बर 21, 2016 by Voyger

आज रवि को देखा तो लगा शायद वक़्त ठहर सा गया। आज भी वो दोनों एक दूसरे को छिप छिप कर ही देख रहे थे। शलिनी ने तो रवि को लाइब्ररी के गलियारे में दूर से देखते ही पहचान लिया था।

वही ऊंची कद काठी, गोरा शफ़्फाक रंग, बालों में सफेदी ज़रूर आ गयी थी, आगे के बाल भी कम हो गए थे लेकिन माथे पर झूलती लट आज भी वही अपनी जगह मौजूद थी।

“कब आए पेरिस से” येही मैसेज तो छोड़ कर गया था रवि। न उसके पहले कुछ कहा और न उसके बाद।

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शलिनी के लिए तो वक़्त रुक गया था। समाज में एक कुशल आईएस के रूप में अपने को स्थापित करने के बाद शादी के सवाल को अपनी मुस्कुराहट से टाल देती थी।

“तुम्हारा परिवार कहाँ है” आदतन रवि ने सवाल के जवाब में अपना सवाल रख दिया।

“तुम शायद भूल गए, तुम्हारे साथ परिवार बसाने की बात सोची थी, जब तुम ही नहीं थे तो………!”

रवि के समझ नहीं आया, वो शलिनी को कैसे अपनी सच्चाई से अवगत कराये।

वो कैसे भूल सकता है जब एक दुर्घटना के बाद डॉक्टर ने उसके परिवार बनाने की क्षमता पर सवाल खड़े कर दिये थे। तब शालिनी की जिंदगी बर्बाद न हो यह सोचकर उसको एक झूता मैसेज कर दिया। लेकिन आज अपने इंतज़ार में खड़ी शालिनी को देखकर उसके प्यार के आगे वो झुक गया। उस दिन की तरह आज भी सच्चाई बताने की हिम्मत रवि में नहीं थी। आत्मविश्वास से भरी शालिनी की मुस्कुराहट ने रवि को हौसला दिया और डरते हुए अपने घर आने का निमंत्रण भी।

शालिनी, रवि की हिचकिचाहट देख कर खिलखिला कर हंस दी और शर्माते, सकुचाते हुए आने की हामी दे दी।

रवि ने गहरी सांस भर के सोचा आज यह लुका छिपी का खेल बंद कर देगा और अपनी सारी हकीकत अपने प्यार को बता देगा।

शालिनी भी येही सोच रही थी, की आज वो रवि को उसकी गलतफहमी से निकाल देगी, की परिवार सिर्फ अपनी संतान से ही नहीं होता, अगर यह बात रवि के दोस्त की जगह उसने खुद ही बताई होती तो आज वो दोनों एक दूसरे के अभिन्न अंग होते।

शायद किस्मत में यह खेल खेलना लिखा ही था। आज वो रवि से मिलकर यह लुका छिपी का खेल खत्म कर देगी।