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स्वावलंबी

Published जुलाई 29, 2018 by Voyger

स्वावलंबी

“आंटी, क्या आप आज थोड़ी देर के लिए मम्मी के पास बैठ जाएंगी, मुझे ऑफिस ज़रूरी काम से जाना है, नहीं तो मैं छुट्टी ही ले लेती ” इतना कहकर मानसी, दौड़ती हुई बाहर चली गई।

“कौन आया था”। चाय का घूंट भरते हुए पतिदेव ने अखबार में नज़रें गढ़ाए हुए ही पूछ लिया।

“मानसी थी, उसकी मम्मी की तबीयत खराब है तो दिन में जाकर देख आने के लिए बोल गई है। ठीक है चली जाऊँगी” कहते हुए मेरा शरीर तो काम में लग गया लेकिन मन कहीं मानसी में ही अटक गया।

पड़ोस में रहने वाली मानसी मेरे सोचने के लिए जाने कितने सवाल छोड़ गई। जन्म से एक शारीरिक कमी के कारण उसे दिव्याङ्ग श्रेणी में रखा जा सकता है। पढ़ने में रुचि रखने वाली मानसी ने पी एच डी तक की डिग्री के साथ और भी कई कोर्स कर रखे हैं। लेकिन उसके अंदर अपने ज्ञान को लेकर बिलकुल भी घमंड नहीं है।

दो शादी-शुदा भाइयों की बड़ी बहन, सरकारी नौकरी में लगी हुई, घर के हर काम के लिए छुट्टी लेती रहती है। क्या सिर्फ इसलिए की उसकी शादी नहीं हुई। क्या सिर्फ इसलिए की उसकी जन्मजात शारीरिक कमी को उसने अपनी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत बनाया और कभी किसी काम से मुंह नहीं मोड़ा। क्या सिर्फ इसीलिए शादी के बाज़ार में वो लिपि पुती गुड़िया नहीं बन सकी जो मैराथन रेस में हिस्सा लेने लायक समझी जाती है। सोचते हुए मेरा सिर दुखने लगा तो चाय का कप लेकर बैठ गई।

“लेकिन क्या इस समाज में कोई ऐसा नहीं है जो आगे बढ़कर मानसी को सच्चे मन से अपना ले” मेरे व्याकुल मन को चैन नहीं था।

पतिदेव जो यह सब देख भी रहे थे और समझ भी रहे थे, चुपचाप आकर पास बैठ गए। उनका पास बैठना ही चोट पर मरहम की तरह का काम करता है। मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोले, “तुम क्यूँ मानसी को लेकर इतनी परेशान होती हो, समझदार लड़की है, खुद को सम्हालना जानती है। उसे सबके दुख-दर्द में और हंसी खुशी में खड़ा होने में सच्चा सुख मिलता है। उसने अपना सुख इसी तरह ढूंढ लिया है। लेकिन भगवान ने उसके लिए भी कोई न कोई तो बनाया ही होगा। चिंता न करो, सब ठीक होगा। ”

“लेकिन क्या एक नवयुवती अगर दूसरों के दुख और सुख में अपना सुख ढूंढती है, तो क्या इसका अर्थ है की उसकी अपनी निजी कोई भावनाएँ नहीं हैं?” मैंने बैचन होते हुए कहा, “मैंने देखा है वो किस तरह हँसते हुए अपने छोटे भाइयों की गृहस्थी के सारे काम करती है, कैसे उनके बच्चों को अपने कलेजे से लगा कर रखती है। लेकिन क्या किसी ने उसकी हँसती आँखों की खामोशी को पढ़ने की कोशिश करी है ….. किसी भी दिव्याङ्ग को सामान्य मान लेना एक अलग बात है, लेकिन उसी तकलीफ में उसका निःस्वार्थ भाव से साथ देना एक अलग बात है। यह सही है की उसकी दोनों भावज उसे मान-सम्मान देतीं हैं। लेकिन जो प्यार और साथ एक जीवन साथी से मिल सकता है उस कमी को तो कोई पूरा नहीं कर सकता हैं न ”

मेरी बैचेनी को कम करने के लिए उन्होनें समझाने की कोशिश करी,“देखो, समाज को दिखाने के लिए और दिव्याङ्ग व्यक्ति को मिलने वाली सुविधाओं के आकर्षण में बहुत से सामान्य युवक दिव्याङ्ग लड़कियों को अपना जीवन साथी तो बना लेते हैं। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर आने के बाद मोह भंग हो जाता है। ऐसी स्थिति में लड़की या तो घुटन भरा समझौतों से भरा जीवन जीती है या फिर अपना जीवन ही समाप्त कर देती है। इसलिए अगर मानसी आजीवन अविवाहित भी रहती है तो कम से कम उसे अपने जीवन पर अधिकार तो है। किसी को उसके ऊपर तरस खाने की जरूरत नहीं है। क्या तुम भूल गईं की आरती के साथ क्या हुआ।“

आरती इनके एक दोस्त की बेटी है जो मानसी की ही भांति पढ़ी-लिखी और ऊंचे पद पर सरकारी नौकरी कर रही थी। माता-पिता ने देखभाल के एक सामान्य युवक से उसकी शादी कर ली। आरती के पति ने शादी के कुछ ही समय बाद पता चला की आरती की सास एक मानसिक रोगी थीं और उसका पति काम के नाम पर कोई छोटा-मोटा व्यापार करता था। आरती को बहला कर उसकी नौकरी छुड़वा दी और उसकी सारी जमा व्यापार के नाम पर लगा दी। आरती एडजस्ट करने के नाम पर सब कुछ सहती गई और कुछ ही समय में एक पढ़ी-लिखी सरकारी ऑफिसर मानसिक मरीज हो गई है।

पतिदेव की बात सुनकर सोचा , सच ही तो है।  दिव्याङ्ग लोग नहीं बल्कि उनकी सोच होती है। मानसी अपने जीवन को स्वाभिमान के साथ जी रही है, क्या यह कम बात है की वह अपनी किसी भी बात के लिए किसी पर निर्भर नहीं है। वो जैसी है, खुश है और अच्छी है। भगवान उसे आगे बढ्ने की हिम्मत दे। यह सोचते हुए मेरे कदम रसोई की ओर चले गए। जल्दी से काम खत्म करके मानसी के घर भी तो जाना है।