“अरे तुमने अपनी कहानी में फिर वो ही घिसा-पिटा रास्ता दिखा दिया” पतिदेव ने मेरी ताज़ी लिखी हुई कहानी को पढ़ते हुए कहा। मेरी सवालिया निगाहों का अर्थ समझते हुए, पतिदेव बोले। “हर बार तुम्हारी कथा की नारी पात्र कमजोर, अनपढ़ और मजबूरी में या तो शरीर बेचने को मजबूर हो जाती है या फिर उसका बलात्कार हो जाता है”। नासमझ बच्चे की तरह सवाल पूछते पतिदेव को जवाब देना जरूरी था। तो अपना समस्त साहित्य ज्ञान को याद करते हुए कहा “आप जानते हैं न की साहित्य समाज का दर्पण होता है। जो आसपास घट रहा है, लेखक, चित्रकार, कवि, फ़िल्मकार, मूर्तिकार वही तो अपनी कला में दर्शाएगा”। जवाब बिलकुल सटीक था। इसलिए विजयी होने की भावना चेहरे पर मुस्कुराहट बन कर सज गयी।
“मेरी साहित्यकार श्रीमती आपने बिलकुल सही कहा” पतिदेव के समर्थन से विजय पताका सुदृढ़ हो गयी। “लेकिन” इतना सुनते ही, अपनी विजय स्त्मभ में सेंध लगती प्रतीत हुई। पतिदेव ने अपना पक्ष रखा “घर में चाहे शादी-ब्याह हो या किसी बच्चे का जन्म, किन्नर के गीत-संगीत के बिना अधूरा रहता है। यह समाज की बरसों पुरानी रीत चली आ रही है। लेकिन इसी रीत की लकीर को पश्चिम बंगाल की 30 वर्षीय किन्नर जोईता मण्डल ने पार किया और एक जज बन गईं। क्या तुम्हारे साहित्य ने उनको अपने पन्नों में स्थान दिया। रेल हादसे में अपने दोनों पैर गँवाने वाली अरुणिमा सिन्हा ने हर प्रकार की बाधा का सामना करते हुए माऊँट एवरेस्ट को लांघ लिया। क्या तुम्हारा इतिहास इन्हें भूल गया। सिरमोर जैसी छोटी जगह का शायद तुमने नाम भी नहीं सुना होगा। वहाँ की नारियों ने पौराणिक काल से लेकर आधुनिक काल तक न जाने कितने साहसिक काम किए हैं, आपका इतिहास क्यूँ मौन है”… पतिदेव के साहित्यक ज्ञान के आगे मेरे शब्द मौन हो गए।
अपनी रौ में बहते हुए स्वामी ने आगे कहा,” आजादी के बाद आज देश के लगभग हर कोने में शिक्षा का इतना प्रसार तो हो चुका है की केरल जैसा राज्य 100 प्रतिशत साक्षर राज्य का दर्जा प्राप्त कर चुका है। फिर क्यूँ आपकी कहानियों में एक महिला मुश्किल के समय में भीख मांगने या अपना शरीर बेचने को मजबूर होती है? आप अपनी पात्रा को किसी स्कूल या दफ्तर में चपरासी भी लगवा सकती हैं। आचार-मुरब्बे बेचकर न जाने कितनी महिलाएं अपनी आजीविका चला रहीं हैं। इसमें न तो शिक्षा की जरूरत है और न ही धन की। फिर क्यूँ आपकी मजबूर नारी पात्र हमेशा घर के बर्तन माँजने वाली बाई ही बनती है। अहमदाबाद का लिज्जत पापड़ ऐसी ही स्वावलंबी महिलाओं की पहचान है। अखबार से लिफाफे बना कर बेचना तो न जाने कब से महिलाओं की आय का साधन रहा है। फिर आपके साहित्य का दर्पण यह चित्र क्यूँ नहीं दिखाता है”।
पतिदेव के हाथ में पानी का गिलास देते हुए मैंने अपना पक्ष रखने का प्रयत्न किया, “ जब अन्न का एक दाना भी घर में न हो, छोटे बच्चे घर पर बिलखते हों, तो कोई महिला पापड़ कैसे बना सकती है। आचार का नींबू कहाँ से लाएगी। अखबार तो शायद वो जानती भी न होंगी” ।
गले को तर करके पतिदेव ने फिर से अपना तीर साधा “ अगर समय रहते परेशानी के समय के अनुसार काम किया जाये तो घर में फाके की नौबत नहीं आएगी। सड़क किनारे बनी हुई झुग्गी में क्या तुमने टिमटिमाता हुआ बल्ब और टीवी चलता हुआ नहीं देखा”।
मैं समझ गई, पतिदेव क्या कहना चाहते हैं। नतमस्तक होते हुए हाथ जोड़े और हथियार डालते हुए कहा , “ आज की नारी अब अबला नहीं सबला है, चाहे तो वह बंजर धरती में भी फूल खिलाने की क्षमता रखती है।“
पतिदेव ने हँसते हुए कहा “श्रीमती जी, आपके दास को चाय मिलेगी” नासमझ बच्चा अब प्रेमी के रूप में निहार रहा था, जिसे अनदेखा करना मुश्किल ही नहीं असंभव था।
मैं चाय बनाने को रसोई में चल दी और सोच रही थी, क्या वास्तव में मेरा साहित्य समाज का दर्पण है?