“कैसा अजीब नाम है तेरा, पता ही नहीं चलता, लड़की को बुला रहे हैं या किसी लड़के को” मोनिका ने लापरवाही भरे अंदाज में अपनी सहेली बाला के कंधे पर हाथ मरते हुए कहा। “तू अपने पैरेंट्स से कह कर अपना नाम क्यूँ नहीं बदलवा लेती, आखिर यार ये तेरी जिंदगी का सवाल है”। मोनिका, बाला को सोच में डूबा हुआ छोड़ कर क्लास से बाहर निकल गयी।
बाला अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी और संयुक्त परिवार की एकमात्र कन्या संतान होने के कारण घर भर की लाड़ली पुत्री थी। बाला के पिता अपनी तीन भाई-बहनो में सबसे छोटी संतान थे और एक बड़े भाई और बहन के बाद उनका नंबर था। परिवार में सभी अपनी अपनी मर्यादा पहचानते थे और सभी सदस्य एक दूसरे को बहुत ज़्यादा इज्ज़त, मान-सम्मान और प्यार देते थे। ऐसे परिवार की एकमात्र कन्या संतान होने के कारण बाला सबकी आँख का तारा थी और उसकी हर इच्छा और पसंद, कहने से पहले ही पूरी कर दी जाती थी। लेकिन प्यार दुलार के साथ साथ बाला को अनुशासन का ज़रूरी पाठ उतना नहीं मिला था जिसके कारण वो सही और गलत की पहचान कर पाती। कभी-कभी अनुशासन और कठोरता का अंतर न कर पाने के कारण परिवार और बाला के बीच मीठी सी नोंक-झोंक हो जाया करती थी।
“मैं नहीं जानती, मुझे तो बस ये करना ही है” पैर पटकती हुई बाला, दुर्गा का रौद्र रूप धरे अपने परिवार के सामने खड़ी थी। बाल-हठ कब किशोर-हठ की राह से गुजरती हुई, स्वाभिमान के दरवाजे को दस्तक देने लगी, बाला का परिवार समझ ही नहीं पाया। “आप लोग नहीं जानते, मेरी सभी सहेलियाँ मेरे नाम का मज़ाक बनाती हैं, और ये में और बर्दाश्त नहीं कर सकती”। बाला के माता-पिता, ताई-ताऊ, बुआ-फूफा सभी प्यार और दुलार से बल्कि कभी-कभी हल्की से डांट से भी उन्होने अपनी बात समझने की कोशिश करी, लेकिन बाला तो जैसे किसी की भी न सुनने के कसम खाये बैठी थी।
तेरह वर्ष की किशोरी और यह दृढ़ता, बाला की माता समझ नहीं पा रही थीं की, युवा होती बाला की पहली ज़िद को बाल हठ मान कर यहीं दबा दिया जाए या फिर अपने नाम के जरिये अपनी पहचान तलाशती पुत्री की बात को मान लिया जाए।